वोट की लालच राजनेताओं के सिर चढ़कर बोलती है। इस क्रम में में वे सामाजिक और धार्मिक सौहार्द की लक्ष्मण रेखा अक्सर लांघ जाते हैं। भीड़ देखकर नेताओं का उत्साहित होना और आरोपों की झड़ी लगाना आम बात है। वैसे कोई भी दल ऐसा नहीं, जो अपने प्रतिद्वंद्वी दल के नेता की बात को मर्यादित और तथ्यपरक मानता हो। चुनाव में तो सूर्य पर भी धूल उछालने की भरपूर कोशिश होती है। हर राजनीतिक दल अपनी हैसियत के हिसाब से आरोपों की धूल उड़ाता है, शिकायतों की बारिश करता है और मनमाना कीचड़ फैलाता है। जो अपनी बात को जितने सलीके से रखता है, वही चुनावी विजयश्री के नजदीक पहुंच पाता है। जिह्वा पर नियंत्रण यद्यपि कि कठिन काम है लेकिन राजनीतिज्ञों के लिए तो यह बिल्कुल भी आसान नहीं है। चुनाव में एक भी दल ऐसा नहीं मिलता जो यह कहे कि वह चुनाव हार भी सकता है। सभी एक दूसरे का सूपड़ा साफ करते रहते हैं। एक दूसरे के बात को जलेबीपेंच बनाते रहते हैं। किसी भी नेता की जुबान फिसली या उसने अपने समर्थक मतदाताओं पर डोरा डालने के फेर में कोई सतही बात कह दी तो उसे लेकर उड़ने वालों की भी राजनीति मेंं कहीं कोई कमी नहीं होती। गत दिनों राहुल गांधी ने कहा कि अगर देश में उनके गठबंधन की सरकार बनी तो वे अयोध्या के राम मंदिर पर बाबरी मस्जिद का ताला लटका देंगे। धारा 370 हटाने, सीएए खत्म करने की बात भी वे कई अवसरों पर कह चुके हैं। धार्मिक आाधार पर आरक्षण की बात भी उन्हीं के श्रीमुख से प्रकट हुई थी, बाकी कि कोर कसर कांग्रेस के थिंक टैंक समझे जाने वाले सैम पित्रौदा पूरी कर रहे हैं। उनके विरासत कर वाले बयान की चोट से कांग्रेस उबर भी नहीं पाई थी कि उन्होंने पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों के चीनी नागरिकों की तरह लगने की बात कह दी है। तमिलनाडु के लोगों के रंग पर भी टिप्पणी कर दी है, इसे लेकर भाजपा ने कांग्रेस को फिर घेर लिया है और कांग्रेस को एक बार फिर बैकफुट पर आना पड़ा है। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दल मतों के धार्मिक ध्रुवीकरण के लिहाज से ही इस तरह के अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। दलितों और पिछड़ों की राजनीति की हवा तो भाजपा अति दलित और अति पिछड़ों के मुद्दे उछालकर पहले ही निकाल चुकी है। अब जब वह पिछड़ों और दलितों के आरक्षण में सेंध लगाने का कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों पर आरोप लगा रही है तो जाहिर है कि इसके पीछे उसकी अपनी गणित है। उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ रही बसपा ने सपा और कांग्रेस के गठजोड़ को जहां पानी पिलाना शुरू कर दिया है और यादव बहुल क्षेत्रों में अखिलेश यादव की परिवारवादी नीति की बघिया उधेड़नी शुरू की है, उसके अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं। वैसे सपा और बसपा की यह अंदरूनी लड़ाई भाजपा के लिए बेहद लाभकारी सिद्ध हो सकती है। आजकल गठबंधन के फ्यूज होने की बात भी काफी जोर-शोर से कही जा रही है। कुल मिलाकर यह चुनाव फिर मजहबी और मतलबी हो गया है। विकास के दावे तो सभी कर रहे हैं लेकिन वैचारिक तोड़-फोड़ और एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयोग लोगों को विकास की किस पगडंडी तक लेकर जाएगा, यह तो वक्त ही तय करेगा। अडानी और अंबानी पर राहुल गांधी की हालिया चुप्पी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो मारक सवाल उठाए हैं, उससे कांग्रेस तिलमिलाकर रह गई है। बात यहीं तक नहीं है कि पीएम मोदी तो महाराष्ट्र में एक भटकती आत्मा की चर्चा कर रहे हैं जो चुनाव नहीं जीतती तो बनते हुए काम बिगाड़ देती है। ऐसी भटकती आत्मा केवल महाराष्ट्र में ही हो, ऐसा तो नहीं है। हर राज्य में इस तरह के विघ्नसंतोषी मिल जाएंगे। ऐसी भटकती आत्माओं को जनता का कितना समर्थन मिलेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिस तरह भ्रष्टाचार का टेंपो दौड़ाने और छिपाने की कोशिशें हो रही हैं, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह और बात है कि अगर आरोपों के कीचड़ में कमल खिलने जैसा आपदा में अवसर प्रकट हो सकता है तो आलोचना में सम्मान देखने वालों का राजनीतिक धैर्य भी सामने आ रहा है। जनता सब जानती है। वह नीर-क्षीर विवेक तो कर ही लेती है।