चुनाव नतीजे पर देश-दुनिया की नजर है। प्रशासन ने जहां मतगणना को लेकर भारी तैयारियां की हैं, वहीं विपक्षी दलों ने मतगणना से पहले ही इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को खलनायक घोषित कर दिया है। एक दिन पहले उन्होंने एक्जिट पोल करने वाली संस्थाओं को नरेंद्र मोदी की तरफदारी करने वाला बताया था और अपने गठबंधन की सरकार बनने का दावा किया था लेकिन आज समूचे विपक्ष के सुर बदले नजर आ रहे हैं। कांग्रेस नेता शशि थरूर जहां इंडिया गठबंधन को 295 सीटें मिलने के दावे कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे कह रहे हैं कि भाजपा अगर 300 सीट जीतती है तो यह ईवीएम की जीत होगी। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के बोल भी कुछ इसी तरह के हैं। हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस सरकार बनी तो भी इसी ईवीएम से चुनाव कराए गए थे। पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी जीती और उसने सरकार बनाई। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार बनी। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जब कांग्रेस की सरकार बनी थी तब तो विपक्ष ने एक बार भी ईवीएम को दोष नहीं दिया था और एक बार भी ईवीएम और डीएम के कथित संबंधों की बात नहीं की थी। मीठा-मीठा गप, मीठा-मीठा थू की यह आदत जन स्वीकार्य हो भी तो कैसे? अभी तो केवल एक्जिट पोल के ही नतीजे आए हैं, उससे देश के विपक्षी दल इतना घबरा गए हैं कि कहिए मत? जो कांग्रेस कल तक सरकार बनाने और मोदी के प्रधानमंत्री न बनने के दावे कर रही थी। अगर वह मतगणना के दौरान अपने विशेषज्ञों की फौज उतारने और कार्यकर्ताओं की हल्ला बोल टीम मतगणना स्थल पर तैनात करने की घोषणा कर रही है तो इसका मंतव्य साफ है कि कांग्रेस और उससे गठजोड़ कर चुनाव लड़ने वाले दलों की मंशा बहुत साफ नहीं है और वे देश को अराजकता और हिंसा की आग में झोंकने की दुरभिसंधि कर रहे हैं। हालांकि प्रबुद्ध तबके की ओर से इस बात की आशंका पहले भी जाहिर की जा चुकी है। लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का हवाला देकर चुनाव लड़ रहे विपक्ष से इस तरह के आचरण की उम्मीद इस देश को कभी नहीं रही। पश्चिम बंगाल में तो मतदान के दौरान हिंसा की कई घटनाएं हो चुकी हैं। इसमें कई लोगों की जान भी जा चुकी है। बिहार के पाटलिपुत्र क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी राम कृपाल सिंह की कार पर हमले की जितनी भी निंदा की जाए, कम है। यह आखिर किस तरह का लोकतंत्र है। वैसे भी काठ की हांडी आग का ताप कब झेल पाती है। विपक्ष के साथ भी वही बात है। वह कभी अपनी बात पर टिकता ही नहीं। विपक्ष ईवीएम को लेकर जिस तरह का भ्रम फैला रहा है और इसमें गृहमंत्री और जिलाधिकारियों की भूमिका को संदिग्ध ठहरा रहा है, वह कितना तर्कसंगत है, इसकी मीमांसा तो होनी ही चाहिए। आरोप लगाना आसान है लेकिन उसे प्रमाणित करने का आधार भी तो होना चाहिए। मिथ्याचार की राजनीति किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। झूठ और फरेब से जनता को एकबारगी गुमराह किया जा सकता है लेकिन जब उसे पता चलेगा तो फिर उसकी नजर से संबंधित राजनीतिक दलों को गिरते भी देर नहीं लगेगी। अभी तक की सर्वमान्य परंपरा यही रही है कि जनता के फैसले को राजनीतिक दल सिर झुकाकर स्वीकार करते रहे हैं लेकिन इधर जिस तरह जनादेश को नकारने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वह देश की राजनीतिक सेहत के लिए बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। एक ओर देश को आगे ले जाने की रूपरेखा बन रही है, वहीं दूसरी ओर बेवजह देश को विवादों में उलझाने की कोशिश हो रही है। यह स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा तो नहीं है। वैसे भी देखा जाए तो विपक्ष के सत्ता से बाहर होने के लिए वे खुद ही जिम्मेदार रहे हैं। कांग्रेस तो वर्ष 2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही चुनाव हारी थी। लोकसभा में 44 सीटों पर सिमट गई थी। वर्ष 2019 के चुनाव में उसने चौकीदार चोर है का नारा देकर अपनी सत्ता वापसी की कोशिश भी की लेकिन उसका यह पैंतरा चल नहीं पाया। मतदाताओं ने उस पर यकीन नहीं किया। इस बार तो उसने दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के लिए 90 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर जहां सवर्णों को नाराज किया, उसके अपने भी इस मांग से सहमत नहीं आए। जहां घर में ही सहमति न हो, वह जीत का परचम लहराने की कल्पना करना भी बेमानी है। कीचड़ से कीचड़ नहीं धुलता। विपक्ष को चुनाव जीतने के लिए मोदी सरकार से भी बड़ी विकास की रेखा खींचनी होगी। केवल आरोपों से बात नहीं बनती। मानसकार ने लिखा है कि कोउ न काहू सुख-दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सब ताता। काश, विपक्ष इस पर विचार कर पाता।