जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने घाटी के मतदाताओं से कहा है कि उम्मीद है कि इस बार आप हमें निराश नहीं करेंगे। इस तरह की उम्मीद पालने वाली वह अकेली नेता नहीं हैं। हर राजनीतिक दल की मतदाताओं से कुछ ऐसी ही अपेक्षा है। अब इन राजनीतिक दलोंको यह कौन समझाए कि वोट देते वक्त मतदाताओं की भी कुछ अपेक्षाएं होती हैं। अपने नेताओं से कुछ उम्मीदें होती हैं। मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनते हैं जो सदन में उनकी बात रख सकें लेकिन राजनीतिक दल जन प्रतिनिधि चुने के बाद कब जनता से दूर हो जाते हैं। शासक बन जाते हैं,पता ही नहीं चलता। उनके ऊल जुलूल निर्णयों से पांच साल तक जनता की सांसें फूलती-पचकती रहती है। उम्मीदें कभी एकतरफा नहीं होती। राजनीतिक दल पहले तो इस बात को समझते नहीं और जब देश की जनता चुनाव के दौरान खामोशी से अपना फैसला सुनाती है तो वे उसे भी नकारने की कोशिश करते हैं। पराजय को स्वीकारना और उसमें अपनी कमियों को तलाशना जीवट का काम है लेकिन राजनीतिक दल अपनी कमियों को जिम्मेदार मानने की बजाय अपने अहंकार को शीर्ष पर रखते हैं। कुशीनगर की आठ साल की नन्हीं कथावाचिका को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में सरल इंसान नजर आता है लेकिन पढ़े-लिखे राजनीतिक समाज को उनकी अच्छाई तो दिखती नहीं, कथित अहंकार जरूर दिखता है। वे नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने के दावे तो बहुत करते हैं लेकिन नफरत के बाजार की पहचान करने में अक्सर चूक कर जाते हैं। उन्हें अपने दौर के सबसे बड़े समाजशास्त्री कबीरदास नजर ही नहीं आते जो यह कहें कि बुराजो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय। जौ दिल ढूंढा आपनो मुझसे बुरा न होय। उसी दौर के दूसरे समाजशास्त्री संत रविदास जिसने ताल ठोककर कहा कि जौ मन चंगा तो कठौती में गंगा। जब मन ही चंगा नहीं है। वह केवल अपनी अपेक्षाओं की ही प्रतिपूर्ति चाहता है तो फिर उसे इस देश या प्रदेश की जनता से उम्मीदें पालने का क्या हक है। दो चरणों की 115 सीटों पर अभी चुनाव होने हैं। जब आप इस कॉलम को पढ़ रहे होंगे तब देश के छह राज्यों की 58 सीटों जिसमें उत्तर प्रदेश की 14 सीटें भी शामिल हैं, पर वोट पड़ रहे होंगे। यह और बात है कि इन सीटों पर फतह हासिल करने में कोई भी दल कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहता लेकिन जनता तो जनता है। वह तो वही करेगी जो उसने ठान रखा है। गुब्बारे फूले हैं। इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि वे फूले ही रहेंगे। गुब्बारे फूट जाएं तो भी और न फूटें तो भी उनकी हवा निकलती ही रहती है। बस समय का फर्क होता है। इतनी छोटी सी बात राजनीतिक दल न समझ नहीं पा रहे हैं। चुनाव में जो जीतता है वही सिकंदर होता है। जीत के दावे तो कोई भी कर सकता है लेकिन जनता का निर्णय या तो ईवीएम जानती है या खुद जनता। ऐसे में हार का ठीकरा इवीएम और चुनाव आयोग पर फोड़ना उचित नहीं है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, यह उतना जरूरी नहीं जितना यह कि जनता के दिल पर कौन राज करेगा। चुनाव आते-जाते रहेंगे, सांसद-विधायक चुने जाते रहेंगे, लेकिन जीतेगा तो वही जो जनता का सच्चा हमदर्द होगा। प्रतिष्ठा भी उसे ही मिलेगा जो जनता को अपना मानेगा।