उम्मीदों पर दुनिया कायम है। राजनीति इसका अपवाद कैसे हो सकती है? एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो चुनाव नतीजे आने से पहले अपनी हार स्वीकार करता हो। ईवीएम पर ठीकरे फोड़ना तो राजनीतिक दलों का खास शगल है। जीते तो ईवीएम को महत्व भले ही न दें लेकिन हारने पर ईवीएम को खलनायक बनाकर ही वे अपनी लाज बचाते हैं। राजनीतिक दल जब यह कह रहे हों कि ईवीएम में छेड़छाड़ न हुई तो भाजपा इस बार सरकार में नहीं आ पाएगी तो इसका मतलब साफ है कि उसे न तो जनता पर विश्वास है और न अधिकारियों पर। इससे इतना अंदाज तो लगाया ही जा सकता है कि जो कुछ वे चुनावी सभा में बोल रहे हैं, वैसा उनके मन में चल नहीं रहा है। वर्ना वे कुछ राजनीतिक दलों को भाजपा की बी टीम तो नहीं ही कहते। लोकसभा चुनाव के चौथे चरण का प्रचार-प्रसार थम गया और इसी के साथ स्टार प्रचारकों की टोली उम्मीदों की डोर थामे अगले चरण के चुनाव में अपनी आवाज का जादू बिखेरने निकल पड़ी।
चुनाव के दौरान नेताओं का परम श्रद्धालु हो जाना सामान्य बात है। मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में वे मत्थे टेकते ही रहते हैं। जनता-जनार्दन को अपने पक्ष में करने का यह भी एक शालीन तरीका है। देश की राजधानी दिल्ली में बजरंगबली के दरबार में मत्था टेकने के बाद अरविंद केजरीवाल ने रोड शो किया। साथ ही यह भी कहा कि अगर देश में फिर मोदी सरकार बनी तो विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं का जेल जाना तय है। इस बार प्रधानमंत्री अमित शाह बन सकते हैं और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बदला जा सकता है। विपक्षी दलों के गठबंधन को इस बहाने डराने और भाजपा में फूट डालने का जो प्रयोग केजरीवाल कर रहे हैं, उसका बाजा केंद्रीय गृहमंत्री, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और भाजपा अध्यक्ष जे. पी. नड्डा ने उनके मुखरित होने के कुछ समय बाद ही बजा दिया है और सुस्पष्ट कर दिया है कि प्रधानमंत्री तो नरेंद्र मोदी ही होंगे। कांग्रेस के बड़े नेता तो पहले से ही दावे कर रहे हैं कि भाजपा इस बार सरकार नहीं बना पाएगी। आम आदमी पार्टी का दावा है कि वह संभवत: केंद्र में बनने वाली विपक्षी गठबंधन की सरकार का हिस्सा होगी। ममता बनर्जी, एम. के. स्टालिन, फारुक अब्दुल्ला, अखिलेश यादव और मायावती आदि को लगता है कि भाजपा इस बार सत्ता से दूर रह जाएगी। उनके आकलन का आधार क्या है, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कुछ कम थोड़े ही हैं। चार सौ पार का नारा देकर वे पहले ही विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बना चुके हैं। और अब तो वे यहां तक कहने लगे हैं कि कांग्रेस 50 सीटें भी नहीं जीत पाएगी तो इसके अपने मतलब हैं। सभी राजनीतिक दलों के अपनी जीत को लेकर विशेष तर्क हैं लेकिन यह सब हवा-हवाई ही है। सारा दारोमदार जनता पर है। वह क्या चाहती है। वह विकास की राजनीति को तरजीह देने वालोंको पसंद करेगी या परिवारवादी विकास की कामना करने वालों का साथ देगी। राजनीति में जोड़-घटाव तो लगा ही रहता है। कौन कितनी सीटें जीतेगा, कौन हारेगा, यह अभी बता पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है लेकिन राजनीतिक दलों को अपने समर्थकों का विश्वास बनाए रखना है, इसलिए उन्हें अपनी विजय पताका को लहराते रहना है। यही समय की मांग भी है। जब सारे दांव फेल हो जाते हैं तो शातिर जन उम्र का दांव चलते हैं। अब विपक्ष ने प्रधानमंत्री मोदी की उम्र का हवाला देते हुए कहा है कि वे तीसरी बार प्रधानमंत्री कैसे बन सकते हैं जबकि इसकी इजाजत तो भाजपा का संविधान भी नहीं देता। अब उन्हें कौन समझाए कि उम्मीद और अनुभव की कोई उम्र नहीं होती। इसके लिए शिक्षा की टकसाल नहीं, व्यवहार की टकसाल ही ज्यादा उपयोगी होती है। लंकाधिपति रावण ने भी यही कहा था कि राम की सेना में एक ही योद्धा है जामवंत जो अब लड़ने योग्य बचा नहीं। जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो किमि होई समरारूढ़ा। उस जामवंत ने राम-रावण युद्ध के बाद भगवान राम से कहा कि इस युद्ध में उन्हें आनंद नहीं आया। वे उनसे मल्लयुद्ध कर उन्हें विश्रांति प्रदान करें। तब भगवान राम ने उन्हें कृष्णावतार तक इंतजार करने को कहा और कृष्ण के रूप में उनकी युद्ध की आकांक्षा पूरी की। विपक्षी नेताओं को भी नरेंद्र मोदी के बारे में इंतजार करना चाहिए और अपने बेहतर समय का इंतजार करना चाहिए। कविवर रहीम को याद करना चाहिए। रहिमन चुप ह्वै बैठिए देख दिनन के फेर, जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं देर लेकिन राजनीतिक दल चुप नहीं बैठ सकते। इतना धैर्य वे अपने भीतर ला भी तो नहीं सकते। उनके लिए तो संग्राम ही जिंदगी है। इसलिए वे लड़ रहे हैं। जीत-हार तो दैव के हाथ है।