उपनिषद का एक वाक्य है-संशयात्मा विनश्यति। अर्थात संदेह करने वाला नष्ट हो जाता है। भारतीय राजनीति में तो चतुर्दिक संदेह का ही वर्चस्व है। इस बात की चिंता किसी को नहीं कि संदेह करने वाला अपने काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता जो अपने काम पर आत्मकेंद्रित न हो, वह अनुकूल परिणाम से अक्सर दूर ही रहता है। इसलिए बजाय संदेह करने के, अपनी सारी ऊर्जा का संचयन कर अपने काम को ईमानदारी और निष्ठा से पूर्ण करना चाहिए। यही प्रगति का असली मार्ग है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि विपक्ष जब ईवीएम पर संदेह व्यक्त करने लगे तो समझना चाहिए कि भाजपा के पक्ष में एक्जिट पोल के नतीजे आ गए हैं। विपक्ष का तर्क है कि अगर ईवीएम के माध्यम से गड़बड़ी न की गई तो भाजपा की हार निश्चित है। देश में 6 चरणों के चुनाव के बाद जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। कुछ लोग देश के मुखिया की आंखों में शर्म का पानी तलाश रहे हैं। हालांकि इस चुनाव में कोई ऐसा दल और उसका मुखिया नहीं जो खुद के निर्भय होने का दावा न कर रहा हो। भाजपा के चार सौ पार के नारे के पीछे जो भी मनोविज्ञान काम कर रहा हो लेकिन विपक्ष ने उसे जिस तरह संविधान बदलने की भावना से जोड़ा, उससे बहुत हद तक भाजपा इस चुनाव में बैकफुट पर भी आई। उसके शीर्ष नेताओं पर सफाई भी देनी पड़ी। दलितों और पिछड़ों के आरक्षण में कई राज्यों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सेंध नीति को भी उजागर करना पड़ा। भले ही कुछ लोग इसे ध्रुवीकरण की कोशिशों के तौर पर देखें लेकिन भाजपा ‘मौनं स्वीकार लक्षणं ’का संदेश जनता-जनार्दन के बीच जाने नहीं देना चाहती थी। विपक्ष ने तो कोर्ट और केंद्रीय निर्वाचन आयोग की भूमिका पर भी सवाल उठाया। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही अपना पक्ष रखा दिया था और छठे चरण के मतदान वाले दिन केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने भी इवीएम की कार्यशैली पर संदेह फैलाने के विपक्षके षड़यंत्रों पर खुलकर अपना पक्ष रखा। यही नहीं, उसने पांच चरणों के लोकसभा चुनाव में पड़े मतों का लोकसभावार ब्यौरा भी जनता के सामने रख दिया जिससे पारदर्शिता बनी रहे। मतदान का लोकसभावार समय पर ब्यौरा न पेश करने का मामला देश की शीर्ष अदालत तक भी पहुंचा था। अगर चुनाव आयोग ने जरा सी सक्रियता बरती होती और अपने काम को समय पर अंजाम दिया होता तो शायद इस तरह के हालात न बनते। छह चरणों में मतदान कम पड़ा या अधिक पड़ा, यह तो राजनीतिक परिचर्चा का विषय बना लेकिन शत प्रतिशत मतदान न होने पर उतना विमर्श कभी नहीं हुआ जितनी अपेक्षा थी। अब हर दल का एक ही दावा है कि सरकार उसकी ही बनेगी। किसी भी दल ने यह नहीं कहा कि सरकार देश की बनेगी। उन्हें 140 करोड़ देवासियों की याद आई मगर इसलिए कि वह सत्तारूढ़ भाजपा को 140 सीटों के लिए तरसा देगी। देखा जाए तो पूरा चुनाव चार सौ पार के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। भाजपा ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया था। विपक्ष को अपना लक्ष्य निर्धारण करना था लेकिन उसने भाजपा को आगे बढ़ने से रोकने को ही अपना लक्ष्य बनाया। विपक्ष चाहता तो वह भाजपा से भी बड़ी विकास रेखा खींच सकता था लेकिन उसने खुद को जाति-धर्म की लक्ष्मण रेखा में कैद कर लिया। आगे बढ़कर कुछ कर दिखाने का साहस ही नहीं किया। एक चरण का मतदान बाकी है लेकिन इस बार चुनाव के पहले दिन से बल्कि उससे भी पहले से कयासों का बाजार गर्म है। मोदी विरोध एक बात है लेकिन मोदी जैसा बनना बिल्कुल अलग बात है। काश, विपक्ष इस दिशा में काम करता। खुद को 140 करोड़ का भारत मानता तो कम से कम यह देश भ्रष्टाचार के दलदल में न फंसता। जातीय और धार्मिक संघर्ष की आग में न झुलसता। मौजूदा लोकसभा चुनाव में कौन जीतेगा, कौन हारेगा, इस पर मंथन हो रहा है। सबको पता है कि उनके राजनीति की लुटिया में कितना पानी है लेकिन इसके बाद भी उसे झलकाते रहने के भरसक प्रयास हो रहे हैं ताकि लोगों को पता चलेगा कि पानीदार तो यही दल है। कौन सा राजनीतिक दल डरता है और कौन नहीं डरता, यह देश को पता है। वह सबकी नस-नस से परिचित है। उसने हम्माम को भी देखा है और नंगों को भी। जिसके पास नहाने के बाद निचोड़ने के लिए कुछ है ही, उन पर यह देश यकीन करे भी तो कैसे ? एक चरण का मतदान हो जाने दीजिए। जनता का फैसला चार जून को आ ही जाना है। इसलिए व्यर्थ की मगजमारी का वैसे भी कोई औचित्य नहीं है।