राजनीति अपने आप में समग्र जीवन दर्शन है। उसे पाप और पुण्य के आलोक में देखना कदाचित ठीक नहीं है। राजतंत्र में राजा की चार नीतियां हुआ करती थीं। साम, दाम, दंड और भेद । पांचवीं कोई नीति नहीं थी। शेष जो कुछ भी राजा करता था, वह लोक व्यवहार के अंतर्गत आता था। अब राजतंत्र बचा नहीं, उसकी जगह लोकतंत्र ने ले ली है लेकिन राजनीति के सूत्र भी वही चार ही रहे। साम, दाम, दंड और भेद। उदारीकृत ढंग से इसे “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास” कह सकते हैं लेकिन कहने में ये चीजें जितनी आसान हैं, व्यवहार में उतनी ही जटिल हैं। जब चुनाव जाति और धर्म की बिना पर लड़े जाते हैं। मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश होती है तो सामूहिक सहभागिता, सार्वजनिक विश्वास और प्रयास की परिकल्पना तो वैसे ही हवा-हवाई हो जाती है। मतदान अपनी मर्जी से होता है, न कि दूसरे की। मत का अर्थ है राय। पक्षधरता, विश्वास। चुनाव में जनता एक प्रत्याशी के पक्ष में विश्वास जाहिर करती है और शेष प्रत्याशियों को नकारती है। वैसे भी भारत मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना की संस्कृति में यकीन रखता है। एक ही परिवार में सबकी राय समान हो, जरूरी नहीं। एक ही पिता की अलग-अलग संतानें गुण, कर्म और स्वभाव के स्तर पर भिन्न होती है फिर वैचारिक ऐक्य का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। तीसरे चरण के चुनाव में जब कुल जमा तीन दिन और शेष है तब यह कहा जा रहा है कि एक गठबंधन को वोट देना पाप का भागीदार बनना है तो दूसरे दल की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि पाप-पुण्य की यह राजनीति संबंधित दल को ले डूबेगी। वैसे भी राजनीतिक दल जिस तरह डरने और भागने की बात कर रहे हैं, उससे मतदाताओं का एक तरह से मनोविनोद ही हो रहा है। नानी को ननिहाल की कथा सुनाना जितना हास्यास्पद है, उतना ही हास्यास्पद है मतदाताओं से प्रतिद्वंद्वी दलों की आलोचना करना। जनता को सब पता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष ने उसके लिए किया क्या है? उसे पता है कि कौन उसके मतलब का है और कौन निष्प्रयोज्य। मतदाता पहले से ही सार-सार को गहने के लिए सूप लेकर बैठा है। राजनीतिक दल दाल- भात में मूसलचंद की तरह उसकी योजना की अपने स्तर पर बाट लगा रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि राजनीतिक दल मतदाताओं को सुस्थिर चित्त से सोचने का मौका देते। देश की चिंता अकेले राजनेताओं को ही हो, ऐसा नहीं है। देश की असल मालिक जनता है। राजनीतिक दल उसके विवेक पर भरोसा तो करें। पूरा देश विश्वास पर ही चलता है लेकिन अब तो घपले-घोटालेे में फंसे नेता भी अदालतों में इस बात की दुहाई देने लगे हैं कि उन्हें गिरफ्तार ही इसलिए किया गया है कि वे चुनाव प्रचार न कर सकें और अदालतें भी उनकी इन अपीलों पर गौर करने लगी हैं, इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? राजनीतिक दल अगर चुनाव प्रचार न करते और मामला जनता पर छोड़ देते तो इस देश का कितना फायदा होता, चुनाव कितना सस्ता और सहज हो जाता, विचार तो इस पर होना चाहिए। इन दिनों हर चुनावी सभा में कोविशील्ड वैक्सीन के साइड इफेक्ट पर चर्चा हो रही है। केंद्र सरकार को देश के करोड़ों लोगों की जान से खिलवाड़ करने वाला बताया जा रहा है और कोरोनाकाल में उसके द्वारा किए गए प्रयासों को नकारने की कोशिश की जा रही है, पूरी पार्टी को इस मामले में खलनायक घोषित करने की राजनीतिक कवायद जारी है लेकिन भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक और कुछ बड़े चिकित्सा व औषधि वैज्ञानिकों के दावे को सुना भी नहीं जा रहा है कि किसी भी टीके का दुष्प्रभाव ज्यादातर एक माह तक ही होता है। कोरोना का टीका लगे लोगों को दो साल हो चुके हैं। ऐसे में कोविशील्ड के खतरे का सवाल ही नहीं उठता लेकिन चुनावी भेड़ियाधंसान में राजनीतिक दल उनकी बातों पर गौर करने की बजाय बस सरकार को घेरने और उसे मतलबपरस्त साबित करने में जुटे हुए हैं। ऐसे में मतदाताओं को ही नीर-क्षीर विवेक करना होगा। चुनाव में झूठ-सच के हथियार तो प्रयुक्त होते ही रहेंगे। माहौल को अतिरंजित करने के भी प्रयास होंगे लेकिन जनता ने अपने आंख-कान बंद रखे तो न ही उसका भला होगा और न देश का। देश गलत हाथों में न जाने पाए, यह देखना मतदाताओं का काम है। पड़ोसी देश, पाश्चात्य देश तो अपनी दुरभिसंधियों का नहला समय-समय पर फेंकते ही रहेंगे। सजग तो हमें रहना है क्योंकि देश हमारा है। हमारे जरा भी गाफिल और भ्रमित होने का मतलब है पूरा बंटाधार।