आरोपों का कोई स्थायी भाव नहीं होता। आरोप परिस्थितिजन्य होते हैं। सुविधा के संतुलन पर आधारित होते हैं। हम जिसे नहीं चाहते, उसकी राई यानी कि सरसों के बराबर दोष की भी आलोचना करते हैं और जिसे चाहते हैं, उसकी बिल्व से बड़ी बुराइयों को भी नजरंदाज कर देते हैं। चुनाव के दौर में वैसे भी आलोचना और प्रशंसा आम बात है। विपक्षी दलों को लगता है कि देश में कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है। देश की आजादी,लोकतंत्र और संविधान खतरे में है। वह इसलिए कि देश में भाजपा की सरकार है। कभी देश में इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ कुछ इसी तरह का माहौल था। उन्हें तो विपक्ष के आरोपों से आजिज आकर देश में आपातकाल तक लगाना पड़ा था। आज वे सारे दल आजादी पर खतरा बता रहे हैं। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में नेताओं और आमजन को बोलने की कितनी आजादी थी, यह किसी से छिपा नहीं है। मीसा में जेल जाने की वजह से लालू प्रसाद ने तो अपनी बेटी का नाम ही मीसा रख दिया था। यह अपने तरह का विरोध था। कल तक जो दल कांग्रेस की आलोचना कर रहे थे। चुनाव में अगर वे कांग्रेस के साथ हैं तो इसके अपने निहितार्थ हैं। राजनीति और युद्ध में शत्रुता और दोस्ती का कोई स्थायी भाव नहीं होता। यहां शत्रु का शत्रु मित्र होता है। वैसे भी एकाध दल ऐसे भी हैं जो मतदाताओं को गुलाब का फूल देकर वोट मांगने की गांधीगिरी कर रहे हैं। आजादी खतरे में हैं,यह आरोप सही हो सकता है लेकिन जो लोग इस तरह का आरोप लगा रहे हैं,वे आजादी का अर्थ जानते भी हैं या नहीं, विचार तो इस पर भी होना चाहिए। जो खुद जमानत पर हों, अगर वे भी अदालत और पुलिस की भूमिका पर अंगुली उठा रहे हैं तो यह सोच-विचार का विषय है। सब बोलय त बोलय चलनियो बोलै जेकरे बहत्तर छेद। सरकार जनता के लिए होती है लेकिन अगर वह अराजक तरीके से काम करने लगे और तिस पर तुर्रा यह कि उस पर कोई रोक-टोक न लगाए, हस्तक्षेप न करे तो इससे किस तरह का लोकतंत्र विकसित होगा और जनता-जनार्दन के कितने काम का होगा। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का फर्क तो समझा ही जाना चाहिए। लोकतंत्र में आंदोलन होते रहना चाहिए लेकिन आंदोलन का कोई ठोस और माकूल आधार तो हो। आसमान गिर रहा है, यह सुनकर ही भागने लगना और आसमान की ओर देखना भी नहीं कितना न्याय संगत है? विडंबना दस बात की है कि आजकल विपक्षी दल सार्थक विरोध के बजाय विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं। यह देश इसकी इजाजत हरगिज नहीं देता। चार जून को क्या होगा, यह मतगणना के बाद तय होगा लेकिन इसके लिए उतावलेपन में कुछ ऐसा न किया जाए कि भविष्य में जब एक दूसरे से नजर मिले तो शर्मिंदगी उठानी पड़े। देश सबका है। जनता संप्रभु हैं। वह किसे सिर आंखों पर बैठाएगी और किसे चित्त से गिराएगी, यह उसका विवेकाधिकार है, उसके विवेक पर अंगुली उठाना बिल्कुल भी उचित नहीं है। कौन किसकी गर्मी निकालेगा, यह भविष्य के गर्भ में हैं। सतही आरोप लगाना और जनता को गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करना राजनीतिक दलों का शगल रहा है। आजादी के बाद से यह खेल चल रहा है। कुछ राजनीतिक दल खेला करने के दावे करते रहते हैं लेकिन इसके लिए जरूरी है कि वे जनता का खेल समझें।